Wednesday, December 3, 2014

नमी

न जाने क्यूँ, कभी अचानक 
आँखोंमें नमीसी आ जाती हैं …  
पास होते हैं लोग फिर भी,  
एक तनहाईसी लगती हैं …   

खो जाता हैं मन 
यादों की गहराइयोंमे,
और चाहता हैं कई चीज़ें,
जो उसे पता होता हैं 
कभी नहीं मिलनेवाली …   

शायद वही चाहते हलकेसे 
आँखोंमैं चली आती हैं …  
उन्हें पता होता हैं जैसे,   
मन से बाहर निकलनेका 
यही एक रास्ता हैं शायद … 
न जाने क्यूँ, कभी अचानक 
आँखोंमें नमीसी आ जाती हैं … 

3 comments:

  1. स्वान्द्या, कविता चांगली आहे त्यामुळे विडंबन करण्याची हुक्की आली आहे, क्षमस्व. कवितेचा विषय दुसऱ्या कडव्यात कळेल कदाचित. नाही समजला तर विडंबन फेल आहे.

    कवितेचं नाव आहे - 'कमी'

    न जाने क्यूं, कभी अचानक
    ताकतमें कमीसी आ जाती है
    पास होते हैं 'धावक' फिर भी
    एक ठेंससी लगती है

    'खो' देता है अनुधावक
    जोरसे 'खो' चिल्लाकर
    और चाहता है कभी न दे
    'खो', उसके टीम प्लेयर
    जो अभी तक आरामसे बैठे थे...

    शायद वही प्लेयर दौडके
    वापस चला आता है ...
    स्तंभपर पलटी मारके
    हलकेसे 'खो' देता है ...
    स्तंभरेखासे बाहर निकलनेका
    फिरसे समय है शायद ...
    न जाने क्यूं फिर एक बार
    ताकतमें कमीसी आ जाती है

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    1. Shantanu, are farach bhari!! Of course, vishay samajala… shalet evadha khelaloy apan… :)

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